Ghazal
SHAM-E-GHAZAL
Saturday, 16 July 2016
ख्वाब
"ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है ,
ऐसी तनहाई कि मर जाने को जी चाहता है "
"घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ,
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है "
"डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक न बताये,
ऐसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है"
1 comment:
Vaishali
28 April 2020 at 15:52
Wahh...
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Wahh...
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