Ghazal
SHAM-E-GHAZAL
Wednesday, 7 November 2012
नक्श-ए-पा
"
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था,
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था"
"परछाईयों के शहर की तनहाईयां न पूछ
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था"
"यूं देखती हैं गुमशुदा लम्हों के मोड से,
इस जिंदगी से जैसे कोई वास्ता न था"
"चेहरों पे जम गई थी ख़यालों की उलझनें,
लफ़्जों की जुस्तजु में कोई बोलता न था"
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